इक सपना देखा है
अपना सा लगता है
पर आम के पेड़ की सबसे ऊँची
डाल पर लगी उस हरी कैरी की तरह है
पकड़ से दूर , चिढाती सी
न जाने कितने कंकर को बटोर
कर ऊपर मारा,
पर कंकड़ है की मुझ पर ही आकर
गिर जाते हैं- चोट मरते हैं.
कैरी तो अभी भी वहीँ है
सामने मेरे- इठलाती सी
डर है की कोई उसे चुरा न ले
कहीं वोह सड़कर गिर न जाए
पेड़ पर चड़ना भी तो नहीं आता मुझे
बस पत्थर मरने के सिवा
और कर भी क्या सकता हूँ
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