Tuesday, April 24



इठलाता, उछलता ,फुदकता
किसी की न सुनता

दूर इक तेज़ रौशनी को देख
मचल गया है
नाच उठा है

सरपट भगा
पर वह रौशनी है की हाथ न आये

मायूस हो गया है
ख़ामोशी सी छायी है
विचलित है

इक चाह है पर राह न है
कोशिश करी तो बहुत पर सब विफल

निकर, निठल्ला, निर्बुद्धि
क्यों तुझ में इतना बचपन भरा है

गली के किसी उस छिछोरे कुत्ते की तरह है..
खाना देखा नहीं की चला पूँछ हिलाने

कभी तो अपनी गल्तियौ से कुछ सीख
कुछ तो रहम खा अपने आप पर
इतनी ख्वाहिशें हैं की पूरा करना मुश्किल

जो है वह चाहिए नहीं
जो नहीं मिल सकता..
उसके लिए मचल उठता है

मुह की खायी थी
आगे भी खाए गा
अभी भी समय है, समझ जा
ओ बावरे मन

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