Tuesday, April 24


अनहद नाद..
घोर घनघोर सन्नाटा..
धुन्द्लापन

कुछ है- अपाठेत, अज्ञात, अस्पष्ट

आशा या निराशा
फल या विफल
कुछ ज्यादा या कुछ कम
या कुछ भी नहीं

जाना तो है ही
और जा भी रहा हूँ मैं.

तो क्यों ये प्रश्न, से सवाल, ये दुविधा
कहीं पथ-विचलित ना हो जाऊ..

गति माध्यम है
पर मन रोके न रुके
विचलित है, पीड़ित है
किसी की ना सुने

मन तो रहा है भाग
आँखों को दिखता नहीं
प्रश्न है दुविधा भरे
सही है न सही

इक तलाश है..इक मकसद
बस खुद को ढूँढना है
उपेक्षाओ के इस जंगल में न जान कहाँ खो गया हूं मैं.

क्या कभी इस भयानक वन में खुद को ढूंड पाउँगा मैं ?

और अगर कभी मिल भी गया
तो इनता न बदल जाऊ की
खुद को खुद न कह पाऊ.

तो ये प्रश्न से सवाल, ये दुविधा
कहीं पथ-विचलित ना हो जाऊ

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