इक और अंत हुआ है
अब इक और कहानी शुरू..
थक गया हूं - यूँ अलग अलग रोल निभाते
कहीं असली आप को ही न भूल जाऊ
वैसे सही भी है- सत्य ने सुख जो कितने दिए हैं
बहुरुपिया बन घूम रहा हूं
जो चाह बन गया
न कोई फ़िक्र न बंदिश
कोई तो नाम दे
इक पहचान दे
यूँ गुमसुम गुमनाम
इक भटकता साया
चाहता है चाहत को
इक तन जिसे वह अपना कह सके
पर शायद कुछ हद से ज्यादा ही मांग लिया
शायद
रूहे कब से इतने नखरे करने लगी
क्या किसी ने देखी हैं
वह तो शायद होती भी नहीं
शायद
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